राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-272/2021
(सुरक्षित)
(जिला उपभोक्ता आयोग, वाराणसी द्वारा परिवाद संख्या 265/2006 में पारित आदेश दिनांक 05.04.2021 के विरूद्ध)
1. मैनेजर,
यूनियन बैंक आफ इण्डिया,
रथ यात्रा क्रासिंग ब्रांच,
58/52, ए-2, महाराजा बाग,
रथयात्रा क्रासिंग, वाराणसी-221010
2. जनरल मैनेजर,
यूनियन बैंक आफ इण्डिया,
रीजनल आफिस, नदेसर,
जिला वाराणसी।
3. चेयरमैन,
यूनियन बैंक आफ इण्डिया,
239, विधान भवन मार्ग, मुम्बई
................अपीलार्थी/विपक्षीगण
बनाम
ओम प्रकाश
पुत्र स्व0 श्री राम नाथ,
निवासी ग्राम भीटी (रामनगर), थाना रामनगर,
जिला वाराणसी, कार्यरत पदेन लिपिक कार्यालय परियोजना प्रबंधक, गंगा प्रदूषण नियंत्रण, शाखा उत्तर प्रदेश जल निगम, भगवानपुर जिला वाराणसी
...................प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1. माननीय न्यायमूर्ति श्री अशोक कुमार, अध्यक्ष।
2. माननीय श्री गोवर्धन यादव, सदस्य।
3. माननीय श्री राजेन्द्र सिंह, सदस्य।
अपीलार्थी/विपक्षीगण की ओर से उपस्थित : श्री राजेश चड्ढा,
विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी/परिवादी की ओर से उपस्थित : श्री सुशील कुमार शर्मा,
विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक: 25.08.2021
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मा0 श्री राजेन्द्र सिंह, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
यह अपील, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के अन्तर्गत जिला उपभोक्ता आयोग, वाराणसी द्वारा परिवाद संख्या-265/2006 में पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 05.04.2021 के विरूद्ध योजित की गयी है।
संक्षेप में अपीलार्थी का कथन है कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग के समक्ष एक परिवाद प्रस्तुत किया कि उसकी पत्नी श्रीमती गीता रानी के साथ अपीलार्थी संख्या-1 यूनियन बैंक आफ इण्डिया की रथयात्रा शाखा पर बचत खाता संख्या-17378 है और उन्हें चेक सुविधा प्राप्त है। उसके द्वारा दिनांक 15.04.2006 को 7,000/-रू0 की धनराशि चेक द्वारा निकाली गयी और शेष 58,385.75/-रू0 खाते में अवशेष था। दिनांक 22.04.2006 को वह अपने खाते को ठीक कराने बैंक गया और उसे मालूम हुआ कि छलकपट द्वारा उसके खाते से 55,500/-रू0 की निकासी हुई है और यह धनराशि चेक संख्या-207881/18.04.2006 द्वारा 15,000/-रू0 तथा चेक संख्या-207882/19.04.2006 द्वारा 40,000/-रू0 और पुन: चेक संख्या-207884/20.04.2006 द्वारा 500/-रू0 की निकासी हुई है। उसने इन तीनों चेक की धनराशि की निकासी से इंकार किया। उसने कथन किया कि उसके द्वारा दिनांक 17.03.2006 को चेक बुक लिया गया था और उसके कई पेज अभी शेष हैं। अत: दूसरा चेक बुक लेने का औचित्य नहीं है। इस सम्बन्ध में उसके द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट अपराध संख्या-96/2006 में अपीलार्थी संख्या-1 के विरूद्ध अंकित करायी गयी।
अपीलार्थी ने अपना लिखित कथन प्रस्तुत किया और कहा कि उसने हस्तलेख विशेषज्ञ से जांच करायी, जिसके अनुसार दूसरी चेक बुक के समय रिक्वीजीशन फार्म पर हस्ताक्षर और अन्य अभिलेखों के हस्ताक्षर प्रत्यर्थी/परिवादी के हैं और यह सब आपस में
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एक समान हैं। अपीलार्थी बैंक ने प्रत्यर्थी/परिवादी के आरोपों को अस्वीकार किया। प्रत्यर्थी/परिवादी ने प्रश्नगत चेकों पर हस्ताक्षर करके रूपये निकाले हैं और एकतरफा आरोप बैंक पर लगाया गया है। प्रत्यर्थी/परिवादी का अपनी पत्नी के साथ संयुक्त खाता है, किन्तु उसने उनको पक्षकार नहीं बनाया। अपीलार्थी बैंक ने विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग के समक्ष हस्तलेख विशेषज्ञ की आख्या दिनांक 03.05.2006 प्रस्तुत किया, जिसने बताया कि विवादित हस्ताक्षर और नमूना हस्ताक्षर एक समान है। प्रत्यर्थी/परिवादी ने लिखित कथन के विरूद्ध कोई आपत्ति नहीं दी। हस्तलेख विशेषज्ञ से अपीलार्थी का कथन सिद्ध होता है। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने हस्तलेख विशेषज्ञ की आख्या को अस्वीकार किया और ऐसा करके त्रुटि की गयी है। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने ऐसा कोई विचार व्यक्त नहीं किया कि उन्होंने हस्तलेख विशेषज्ञ से असहमति क्यों जताई। प्रत्यर्थी/परिवादी को हस्तलेख विशेषज्ञ से प्रतिपरीक्षा करने का पूर्ण अवसर था, जो उसने नहीं किया।
विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग का निर्णय मात्र अनुमान और परिकल्पनाओं पर आधारित है तथा मनमाना और वास्तविकता से परे है। प्रत्यर्थी/परिवादी ने झूठा वाद प्रस्तुत किया और बैंक के कर्मचारियों पर अनर्गल आरोप लगाया। तीनों प्रश्नगत चेकों पर प्रत्यर्थी/परिवादी के ही हस्ताक्षर थे, किन्तु बैंक को परेशान करने की नीयत से वाद प्रस्तुत किया गया। इस मामले में पुलिस के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करायी गयी है। अत: विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग को वाद श्रवण का अधिकार नहीं था। प्रत्यर्थी/परिवादी ने अकारण ही बैंक और उसके कर्मियों पर रूपया निकालने का आरोप लगाया है। अपीलार्थी के विरूद्ध कोई वाद का कारण नहीं बनता है और विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने अपने क्षेत्राधिकार का दुरूपयोग किया है। अत: वर्तमान अपील स्वीकार किये जाने योग्य है तथा प्रश्नगत निर्णय दिनांक 05.04.2021 अपास्त होने योग्य है।
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हमने अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता श्री राजेश चड्ढा और प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता श्री सुशील कुमार शर्मा को सुना तथा पत्रावाली का सम्यक रूप से परिशीलन किया।
हमने प्रश्नगत निर्णय का अवलोकन किया, जिसके अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी का अपीलार्थी बैंक में वेतन खाता है। बाद में चिकित्सीय असमर्थता के कारण उसने अपनी पत्नी को सहखातेदार बनाया और वह खाते का संचालन करने लगी। दिनांक 17.03.2006 को विपक्षी संख्या-2 ने 20 पन्ने की चेक बुक उपलब्ध करायी, जिसमें से प्रत्यर्थी/परिवादी ने दिनांक 15.04.2006 को 7,000/-रू0 खाते से प्राप्त किया। खाते में शेष 58,385.75/-रू0 बचे। जब प्रत्यर्थी/परिवादी ने दिनांक 22.04.2006 को बैंक में जाकर खाता देखा तब मालूम हुआ कि उसके खाते से विपक्षी संख्या-2 और उसके अधीनस्थ कर्मचारियों ने कूटरचना और धोखाधड़ी करके 55,500/-रू0 निकाल लिये हैं। इसके बारे में जब पूछताछ की गयी तब बताया गया कि दिनांक 18.04.2006 से दिनांक 20.04.2006 तक कथित चेकों द्वारा यह धनराशि निकाली गयी है। यहॉं पर दिनांक 15.04.2006 महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वह दिनांक है जब प्रत्यर्थी/परिवादी ने स्वयं 7,000/-रू0 बैंक से चेक के माध्यम से निकालना स्वीकार किया है। परिवाद पत्र की धारा-2 से स्पष्ट है कि यह 7,000/-रू0 चेक बुक संख्या-0204201 से निकाले गये, जिसमें कुल 20 पेज थे और यह दिनांक 17.03.2006 को उपलब्ध करायी गयी। इसके पश्चात् दिनांक 18.04.2006 को पुन: इसी खाते से धनराशि निकाली गयी, लेकिन इसके लिए दूसरी चेक बुक का प्रयोग किया गया। यह अविश्वसनीय है कि बैंक ने दिनांक 15.04.2006 को 20 पन्नों की चेक बुक से केवल पहले चेक द्वारा 7,000/-रू0 की निकासी की और मात्र 03 दिन बाद अर्थात् दिनांक 18.04.2006 को प्रत्यर्थी/परिवादी को एक नई चेक बुक भी जारी कर दी और उस चेक बुक से दिनांक 18.04.2006 को पहला भुगतान भी किया गया। कोई भी दूरदर्शी सामान्य ज्ञान वाला
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व्यक्ति यह समझ सकता है कि जहॉं पर प्रत्यर्थी/परिवादी को 20 पन्ने की चेक बुक प्रदान की गयी हो, जो उसकी अभिरक्षा में है और वह चेक बुक उसके घर पर मौजूद है, इसके बाद भी चेक बुक का केवल एक पृष्ठ निकलने के बाद 19 शेष पृष्ठों के होते हुए मात्र 02 दिन के अन्दर वह दूसरी नई चेक बुक निर्गत करने के लिए बैंक को क्यों लिखेगा? यहॉं पर प्रत्यर्थी/परिवादी अपनी पत्नी के माध्यम से खाते का संचालन कर रहा है, जैसा कि अपीलार्थी कहता है उसके द्वारा दूसरी चेक बुक के लिए दिनांक 17.04.2006 को आवेदन किया गया, जिसकी फोटोकापी पत्रावली में संलग्न है तब यह प्रश्न उठता है कि क्या यह चेक बुक लेने का फार्म प्रत्यर्थी/परिवादी ओम प्रकाश खुद लेकर आया था या उसकी पत्नी लेकर आयी थी। प्रत्यर्थी/परिवादी ने स्वयं स्वीकार किया है कि बैंक का सारा कामकाज पत्नी देख रही थी और यदि पत्नी बैंक का काम देख रही थी तब दूसरी चेक बुक निर्गत करने के प्रार्थना पत्र पर प्रत्यर्थी/परिवादी ओम प्रकाश द्वारा अपनी पत्नी श्रीमती गीता रानी के हस्ताक्षर को प्रमाणित करता और फिर जब श्रीमती गीता रानी सहखातेदार बन चुकी थी तब वह अपने हस्ताक्षर से दूसरी चेक बुक ले सकती थी।
यहॉं पर स्पष्ट है कि बैंक ने 02 दिन पहले पुरानी चेक बुक के पहले पन्ने से 7,000/-रू0 की निकासी की है, जो प्रत्यर्थी/परिवादी के पासबुक में अंकित होगा और जब भी कोई चेक बैंक में दिया जाता है तो लेजर बुक से सम्बन्धित व्यक्ति के खाते में इन्द्राज किया जाता है और फिर हस्ताक्षर का मिलान बैंक में खाता खुलते समय दिये गये कार्ड पर मौजूद हस्ताक्षरों से किया जाता है और फिर भुगतान के लिए सम्बन्धित चेक को आगे बढ़ाया जाता है। क्या बैंक के सम्बन्धित कर्मचारी ने लेजर बुक देखने पर यह नहीं देखा कि 02 दिन पहले एक दूसरे चेक बुक के मात्र पहले पन्ने से 7,000/-रू0 का चेक काटा गया और उसका भुगतान हुआ है और फिर 02-03 दिन बाद नई चेक बुक से भुगतान क्यों लिया
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जा रहा है? यह बैंक द्वारा गम्भीर अनियमितता और सेवा की कमी को दर्शाता है।
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह कहना कि जब भी कोई चेक बुक के लिए आवेदन करेगा उसे चेक बुक जारी कर दी जायेगी, कतई विश्वसनीय नहीं है। इस तरह तो प्रत्येक व्यक्ति 01 महीने में 10-20-50 चेक बुक चाहे तो निकलवा सकता है। यह तर्क मानना किसी भी दृष्टि से सम्भव नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि प्रत्यर्थी/परिवादी को इतने रूपये की आवश्यकता क्या थी? प्रत्यर्थी/परिवादी ने स्वयं कहा है कि वर्ष 2000 में उसकी जांघ की हड्डी टूट गयी थी। इस कारण उसने अपनी पत्नी श्रीमती गीता रानी को सहखातेदार बनवाया था और उसकी पत्नी उस खाते का संचालन अपने हस्ताक्षर से करने लगी थी तब प्रश्न उठता है कि चेक पर श्रीमती गीता रानी के हस्ताक्षर क्यों नहीं हैं? यदि वह खाते का संचालन कर रही थी तब उसके द्वारा दूसरा चेक बुक लेने का कोई औचित्य नहीं था और न ही प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा भी दूसरी चेक बुक लेने का कोई कारण स्पष्ट होता है। प्रत्यर्थी/परिवादी या उसकी पत्नी पढ़े लिखे शातिर लोग नहीं हैं। यह उस गरीब समाज के व्यक्ति हैं जो बड़ी मुश्किल से ही अपना पैसा बैंक से निकालते हैं। यदि किसी के खाते से अचानक ही 02-03 दिन के अन्दर 55,500/-रू0 निकल जायें तो यह इस सम्भावना को जन्म देता है और इन परिस्थितियों की ओर इशारा करता है कि इस मामले में बैंक की सांठगांठ है।
विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने हस्तलेख विशेषज्ञ की आख्या को अस्वीकार किया, जो बैंक ने अपने स्तर पर अपने हस्तलेख विशेषज्ञ से एक आख्या ले ली, जो उसके पक्ष का समर्थन करती थी। उसके द्वारा इसमें राजकीय हस्तलेख विशेषज्ञ को नियुक्त कर विवादित और नमूना हस्ताक्षर का मिलान कराने के लिए कोई प्रार्थना पत्र नहीं दिया गया। यह मामला तो ऐसा मामला है जहॉं पर सी0बी0आई0 जांच की आवश्यकता थी क्योंकि
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खाताधारकों के खाते का पैसा एक नया चेक जारी कर उसे निकलवा देना बिना बैंक की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। खाताधारक ओम प्रकाश के हस्ताक्षर का हमने अवलोकन किया और यह पाया कि ओम प्रकाश के हस्ताक्षर फर्जी करना बहुत ही आसान है क्योंकि यह अत्यन्त सरल हिन्दी का पूर्ण हस्ताक्षर है और इसमें कहीं कोई घुमाव, मोड़ या जटिलता नहीं है।
विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग का यह निष्कर्ष उचित है कि जो भी साक्ष्य और परिस्थितियॉं उपलब्ध हैं उसके आधार पर विवादित चेक संख्या 207881, 207882, 207884 कूटरचना का द्योतक है। लगातार इन तीन चेकों से अवैध धनराशि का आहरण हुआ है और यह चेक क्रमांक 881, 882 के बाद 884 है। बीच का एक चेक 207883 रद्द किया गया या निरस्त किया गया। इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। यह इस सन्देह को जन्म देता है कि उस चेक पर हस्ताक्षर करने में कोई त्रुटि हो गयी थी, इसलिए उसका उपयोग नहीं किया गया।
इन तीन चेकों की फोटोकापी प्रस्तुत की गयी है। यह चेक क्रमश: दिनांक 18.04.2006, दिनांक 19.04.2006 और दिनांक 20.04.2006 को प्रस्तुत किये गये हैं। लगातार तीन दिनों तक घर से बैंक आकर धनराशि आहरित करने का कोई कारण स्पष्ट नहीं है। खास तौर से 500/-रू0 जो दिनांक 20.04.2006 को निकाले गये हैं उसका औचित्य स्पष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त एक चेक दिनांकित 18.04.2006 में ऊपर अंग्रेजी में Self और नीचे हिन्दी में पन्द्रह हजार रू0 मात्र लिखा है, जबकि दूसरे चेक दिनांकित 20.04.2006 में अंग्रेजी में Self और अंग्रेजी में ही Five Hundred only लिखा है, जबकि तीसरे चेक दिनांकित 19.04.2006 में हिन्दी में सेल्फ और चालीस हजार रू0 मात्र लिखा है। चेक भरने में इस तरह की अनियमितता जानबूझकर यह प्रदर्शित करने के लिए दिखायी गयी है कि इन चेकों को प्रत्यर्थी/परिवादी ओम प्रकाश ने ही भरा है। क्या ओम प्रकाश को
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अंग्रेजी का ज्ञान था?
हमने बचत खाता खोलते समय फार्म पर ओम प्रकाश के हस्ताक्षर और विवादित चेकों पर तथा नई चेक बुक जारी करने वाले प्रार्थना पत्र पर ओम प्रकाश के हस्ताक्षरों को देखा, जिसमें नंगी आंखों से देखने पर भिन्नता स्पष्ट है। बचत खाता खोलते समय प्रस्तुत प्रपत्र पर ओम प्रकाश के हस्ताक्षर अलग प्रकृति के हैं, जबकि शेष विवादित और अन्य अभिलेख पर उसके हस्ताक्षर अलग प्रकृति के प्रतीत हो रहे हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई न्यायिक सिद्धान्तों में यह व्यवस्था दी है कि न्यायालय ही सक्षम विशेषज्ञ है और वह नंगी आंखों से विवादित और मान्य हस्ताक्षर देख सकती है और इस सम्बन्ध में उसका निर्णय अन्तिम है।
इस मामले में एक अपील यूनियन बैंक आफ इण्डिया द्वारा ब्रांच मैनेजर की ओर से अपील संख्या-234/2020 पूर्व में प्रस्तुत की गयी थी, जिसमें माननीय राज्य आयोग द्वारा निर्णय दिनांक 26.10.2020 द्वारा यह मामला पुन: विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग को गुणदोष पर सुनवाई के लिए रिमाण्ड किया गया था। इसके पहले भी एक अपील ब्रांच मैनेजर, यूनियन बैंक आफ इण्डिया की ओर से अपील संख्या-2096/2007 प्रस्तुत की गयी थी। उसमें भी माननीय राज्य आयोग के निर्णय दिनांक 05.12.2018 द्वारा पत्रावली विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग को उभय पक्षों को साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करते हुए गुणदोष के आधार पर निस्तारण के लिए प्रतिप्रेषित की गयी थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि इसके पूर्व दो अपीलें भी यूनियन बैंक आफ इण्डिया द्वारा ही प्रस्तुत की गयी थी, जो उसकी लापरवाही को प्रदर्शित करता है।
वर्तमान मामले में समस्त तथ्यों व परिस्थितियों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान अपील के आधार पर्याप्त नहीं हैं और विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग, वाराणसी द्वारा पारित प्रश्नगत निर्णय दिनांकित 05.04.2021 सारगर्भित
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और विधिसम्मत है तथा उसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान अपील निरस्त होने योग्य है।
आदेश
वर्तमान अपील निरस्त की जाती है। जिला उपभोक्ता आयोग, वाराणसी द्वारा परिवाद संख्या-265/2006 में पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 05.04.2021 की पुष्टि की जाती है।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय/आदेश को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(न्यायमूर्ति अशोक कुमार) (गोवर्धन यादव) (राजेन्द्र सिंह)
अध्यक्ष सदस्य सदस्य
निर्णय आज खुले न्यायालय में हस्ताक्षरित, दिनांकित होकर उद्घोषित किया गया।
(न्यायमूर्ति अशोक कुमार) (गोवर्धन यादव) (राजेन्द्र सिंह)
अध्यक्ष सदस्य सदस्य
जितेन्द्र आशु0
कोर्ट नं0-1