सुरक्षित
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
अपील संख्या- 368/2016
(जिला उपभोक्ता फोरम, देवरिया द्वारा परिवाद संख्या- 593/2006 में पारित निर्णय/आदेश दिनांक 25-01-2016 के विरूद्ध)
यूनियन बैंक आफ इण्डिया, सेन्ट्रल आफिस, यूनियन बैंक भवन, 239 विधान भवन मार्ग निर्मन प्वांइट, मुम्बई 400021 एण्ड इट्स ब्रांच आफिस एट- देवरिया मेन ब्रांच मालवीय रोड, सुभाष चौक, देवरिया।
अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
मोहन प्रसाद, निवासी ग्राम व पोस्ट बैतालपुर, गौरी बाजार, डिस्ट्रिक देवरिया।
प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
माननीय न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : विद्वान अधिवक्ता श्री राजेश चड्ढा
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : विद्वान अधिवक्ता श्री बी०के० उपाध्याय
दिनांक- 30-10-2019
माननीय न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित
निर्णय
परिवाद संख्या– 593 सन् 2006 मोहन प्रसाद बनाम यूनियन बैंक आफ इण्डिया व एक अन्य में जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, देवरिया द्वारा पारित निर्णय और आदेश दिनांक- 25-01-2016 के विरूद्ध यह अपील धारा- 15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत राज्य आयोग के समक्ष प्रस्तुत की गयी है।
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आक्षेपित निर्णय और आदेश के द्वारा जिला फोरम ने परिवाद स्वीकार करते हुए निम्न आदेश पारित किया है :-
‘’ विपक्षीगण विवादित चेकों की सम्पूर्ण राशि मु० 515700.00 रू० दिनांक 02-12-2006 से 18 प्रतिशत ब्याज जो कुल राशि देने तक देय होगा, 02 माह के अन्तर्गत परिवादी को 10,000/-रू० वाद व्यय सहित प्रदान करें। "
जिला फोरम के निर्णय से क्षुब्ध होकर परिवाद के विपक्षी यूनियन बैंक आफ इण्डिया ने यह अपील प्रस्तुत की है।
अपील की सुनवाई के समय अपीलार्थी/विपक्षी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री राजेश चड्ढा और प्रत्यर्थी/परिवादी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री बी०के० उपाध्याय उपस्थित आए हैं।
मैंने उभय-पक्ष के विद्वान अधिवक्तागण के तर्क को सुना है और आक्षेपित निर्णय और आदेश तथा पत्रावली का अवलोकन किया है।
मैंने प्रत्यर्थी की ओर से प्रस्तुत लिखित तर्क का भी अवलोकन किया है।
अपील के निर्णय हेतु संक्षिप्त सुसंगत तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद जिला फोरम के समक्ष विपक्षीगण, (1) यूनियन बैंक आफ इण्डिया, सेन्ट्रल आफिस, यूनियन बैंक भवन, एवं (2) यूनियन बैंक आफ इण्डिया, शाखा देवरिया के विरूद्ध इस कथन के साथ प्रस्तुत किया है कि उसने यूनियन बैंक आफ इण्डिया की शाखा देवरिया में दिनांक 27-05-2005 को खाता संख्या– 44483 खोला था जिसमें वह बराबर पैसा जमा करता था और निकालता था। दिनांक- 31-01-2006 को वह सेवानिवृत्त हो गया। सेवानिवृत्त होने के बाद जो राशि मिली वह उसने अपने इसी खाते में जमा कर दिया। दिनांक 14-10-2006 तक उसके खाते में कुल 5,34,139/- रू० जमा था। दिनांक 16-10-2006 को 10,000/-रू० निकालने के लिए प्रत्यर्थी/परिवादी बैंक
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में गया और लूज चेक भरकर संबंधित लिपिक को दिया। उसके बाद उसी दिन 2.00 बजे दिन में टोकन व पासबुक संबंधित लिपिक को देने पर उसने बताया कि खाते में मात्र 8,466/-रू० बचा है।
परिवाद पत्र के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन है कि उसने उपरोक्त खाते से दिनांक 05-10-2006 को 10,000/-रू०, और दिनांक 16-10-2006 को 10,000/-रू० निकाला है। इसके अलावा उसने अन्य धनराशि नहीं निकाली है। बैंक से एकाउंट का विवरण मांगने पर बैंक द्वारा उपलब्ध कराये गये विवरण के अनुसार दिनांक 05-10-2006, दिनांक 09-10-2006, दिनांक 11-10-2006, और दिनांक- 13-10-2006 को क्रमश: 15,000/-रू०, 15,000/-रू०, 15,700/-रू०, और 470000/-रू० कुल 5,15,700/-रू० कूटरचना कर बैंक के कर्मचारियों ने उसके खाते से निकाला है।
परिवाद पत्र के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी ने दिनांक 17-10-2006 को शाखा प्रबन्धक से लिखित शिकायत की परन्तु उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखाया।
परिवाद पत्र के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन है कि शाखा प्रबन्धक एवं अन्य कर्मचारियों ने मिलकर प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर बनाकर कूटरचना कर यह धनराशि निकाली है। उसने पुलिस अधीक्षक, देवरिया जिलाधिकारी देवरिया और अपने विभाग के अधिशाषी अभियन्ता तथा विपक्षी संख्या-1 को पंजीकृत डाक से सूचना भेजा है और धारा 156(3) दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत शाखा प्रबन्धक तथा अन्य कर्मचारियों के विरूद्ध आपराधिक मुकदमा कायम कराने हेतु प्रार्थना पत्र दिया है। उसने दिनांक 03-11-2006 को विपक्षीगण को नोटिस भी भेजा है परन्तु उसका पैसा नहीं मिला है। अत: विवश होकर उसने परिवाद जिला फोरम के समक्ष प्रस्तुत किया है।
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जिला फोरम के समक्ष अपीलार्थी/विपक्षीगण की ओर से आपत्ति प्रस्तुत की गयी है जिसमें कहा गया है कि प्रत्यर्थी/परिवादी को परिवाद प्रस्तुत करने का कोई वाद कारण प्राप्त नहीं है। अपीलार्थी/विपक्षीगण ने सेवा में कोई कमी नहीं की है। लिखित कथन में अपीलार्थी/विपक्षीगण ने यह भी कहा है कि प्रत्यर्थी/परिवादी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ता नहीं है और विधि एवं तथ्य के जटिल प्रश्न इस मामले में निहित हैं। अत: परिवाद की सुनवाई का अधिकार जिला मंच को नहीं है।
लिखित कथन में अपीलार्थी/विपक्षीगण की ओर से कहा गया है कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने विभिन्न तिथियों पर उपस्थित होकर लूज चेकों के द्वारा स्वयं रूपया निकाला है। भारत सरकारके अनुमोदित परीक्षक के पास हस्ताक्षर मिलान के लिए भेजा गया है जिसमें चेकों पर प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर पाया गया है।
जिला फोरम ने उभय-पक्ष के अभिकथन एवं उपलब्ध साक्ष्यों पर विचार करने के उपरान्त यह माना है कि परिवाद में उल्लिखित विवादित चेकों के ऊपर अथवा पृष्ठ पर प्रत्यर्थी/परिवादी के हस्ताक्षर नहीं हैं और उसने प्रश्नगत धनराशि नहीं निकाला है। अत: जिला फोरम ने परिवाद स्वीकार करते हुए आदेश पारित किया है जो ऊपर अंकित है।
अपीलार्थी/विपक्षी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि जिला फोरम द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश तथ्य और विधि के विरूद्ध है। हस्तलेख विशेषज्ञ रिपोर्ट से यह प्रमाणित है कि विवादित चेकों पर प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर है और उसने पैसा निकाला है।
अपीलार्थी/विपक्षी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि विवादित चेकों पर हस्ताक्षर कूटरचित होने के सम्बन्ध में कोई निर्णय देने का अधिकार जिला
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फोरम को नहीं है। प्रत्यर्थी/परिवादी की रिपोर्ट पर आपराधिक वाद पंजीकृत किया गया है। कथित रूप से विवादित चेकों पर कूटरचना के सम्बन्ध में निर्णय देने हेतु आपराधिक न्यायालय ही सक्षम है।
अपीलार्थी/विपक्षी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के प्रार्थना पत्र अन्तर्गत धारा 156(3) दण्ड प्रक्रिया संहिता के आधार पर पंजीकृत आपराधिक वाद की कार्यवाही माननीय उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश से स्थगित है।
अपीलार्थी/विपक्षीगण के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि वर्तमान परिवाद में तथ्य और विधि के जटिल प्रश्न का निर्णय होना आवश्यक है जिसके लिए दीवानी न्यायालय ही सक्षम न्यायालय है। अत: इस आधार पर भी जिला फोरम द्वारा पारित निर्णय विधि सम्मत नहीं है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि जिला फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार प्राप्त है। बैंक के कर्मचारियों ने कूटरचना का कपटपूर्ण ढंग से प्रत्यर्थी/परिवादी के खाते से विवादित चेकों से धनराशि निकाला है। इस प्रकार बैंक की सेवा में कमी है। बैंक अपने कर्मचारियों के कार्य हेतु वायकेरियस लाइबेलिटी के आधार पर उत्तरदायी है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि आपराधिक वाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिवाद में बाधक नहीं हो सकता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधान के अनुसार परिवाद बैंक की सेवा में कमी हेतु ग्राह्य है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा प्रस्तुत अपील बलरहित है और निरस्त किये जाने योग्य है।
मैंने उभय पक्ष के तर्क पर विचार किया है।
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प्रत्यर्थी/परिवादी की तरफ से हस्तलेख विशेषज्ञ श्री एम0एम0 कक्कड़ की रिपोर्ट श्री कक्कड़ के शपथ-पत्र के साथ प्रस्तुत की गयी है। अपीलार्थी/विपक्षी बैंक की तरफ से हस्तलेख विशेषज्ञ श्री आर0 के0 जायसवाल की रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी है।
अपीलार्थी/विपक्षी के हस्तलेख विशेषज्ञ श्री आर0 के0 जायसवाल ने अपनी रिपोर्ट में निम्न Opinion दिया है :-
Opinion
After a careful examination and comparison I am of the opinion that the disputed signatures marked as D1 to D5 have been written by the writer of the specimen and admitted signatures marked as S1 to S5 and A1 to A3.
प्रत्यर्थी/परिवादी के हस्तलेख विशेषज्ञ श्री मदन मोहन कक्कड़ ने अपनी रिपोर्ट में निम्न राय दी है :-
In View of the aforesaid reasons I am of the opinion that the disputed signatures marked Q1 to Q12 All Have Not Been Written by the writer of the signatures marked Q13, Q14 and S1 to S28. And the disputed signatures marked Q13, Q14 Have Been Written by the writer of the standard signatures marked S1 to S28.
हस्तलेख विशेषज्ञ श्री मदन मोहन कक्कड़ की रिपोर्ट में यह भी अंकित है कि Q13, व Q14 के signatures की रोशनाई Q1 से Q12 के signatures रोशनाई से भिन्न है।
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हस्तलेख विशेषज्ञ श्री मदन मोहन कक्कड़ की रिपोर्ट के अनुसार तीन विवादित चेक के हस्ताक्षर स्वीकृत व specimen के हस्ताक्षर से भिन्न है। केवल एक विवादित चेक जो 4,70,000/-रू० का है का हस्ताक्षर स्वीकृत एवं specimen हस्ताक्षर से मेल खाता है।
जिला फोरम के निर्णय से स्पष्ट है कि जिला फोरम के समक्ष प्रत्यर्थी/परिवादी ने लिखित तर्क में स्पष्ट कहा है कि लूज चेक जारी करने वाले रजिस्टर पर उसका फर्जी हस्ताक्षर किया गया है। जिला फोरम के समक्ष प्रत्यर्थी/परिवादी ने पूरक शपथ-पत्र के साथ बैंक के लूज चेक इसू रजिस्टर की फोटोप्रति प्रस्तुत किया है। अपीलार्थी बैंक ने मूल लूज चेक इसू रजिस्टर प्रस्तुत कर प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा प्रस्तुत चेक इसू रजिस्टर की फोटोप्रति को गलत दर्शित नहीं किया है। अत: प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा प्रस्तुत चेक इसू रजिस्टर पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं है। इस पत्रिका में प्रत्यर्थी/परिवादी के नाम जारी विवादित चेक दिनांक 05-10-2006, 15,000/-रू० के सामने प्रत्यर्थी/परिवादी या अन्य किसी का हस्ताक्षर नहीं है। दिनांक 09-10-2006 के चेक 15,000/-रू० दिनांक 11-10-2006 के चेक 15,700/-रू० और दिनांक 13-10-2006 के चेक 8000/-रू० की प्रविष्ट के सामने प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर है परन्तु प्रत्यर्थी/परिवादी ने यह हस्ताक्षर अपना होने से इन्कार किया है। उसका कथन है कि उसका फर्जी हस्ताक्षर किया गया है। बैंक ने हस्तलेख विशेषज्ञ से मिलान कराकर चेक इसू रजिस्टर पर प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर साबित नहीं किया है। दिनांक 13-10-2006 को
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प्रत्यर्थी/परिवादी के चेक की लूज चेक रजिस्टर में धनराशि 8000/-रू० अंकित है जिसे बाद में 4,70,000/-रू० करके 4,70,000/-रू० निकाला गया है। यह लूज चेक 8000/-रू० का था तो इस चेक से 4,70,000/-रू० कैसे निकाला गया इसका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण अपीलार्थी बैंक के विद्वान अधिवक्ता नहीं दे पाए हैं। लूज चेक इसू रजिस्टर में इस चेक की धनराशि 8000/-रू० अंकित होने और बाद में इसे 4,70,000/-रू० करके 4,70,000/-रू० निकाले जाने से सारा संव्यवहार संदिग्ध हो जाता है।
प्रत्यर्थी/परिवादी सभी चारों विवादित चेकों पर अपने हस्ताक्षर होने और इन चेकों के द्वारा रूपया निकालने से इन्कार करता है। श्री मदन मोहन कक्कड़ हस्तलेख विशेषज्ञ की आख्या से स्पष्ट है कि तीन विवादित चेकों पर प्रत्यर्थी/परिवादी का हस्ताक्षर नहीं है और जिस चेक पर उसका हस्ताक्षर श्री कक्कड़ की रिपोर्ट के अनुसार है वह चेक मूल रूप से 8000/-रू० का चेक इसू रजिस्टर में अंकित है। इसे बाद में 4,70,000/-रू० करके 4,70,000/-रू० निकाला गया है। अत: इस संव्यवहार में भी कूट रचना स्पष्ट परिलक्षित होती है।.
उल्लेखनीय है कि एक्सपर्ट ओपिनियन मात्र एक राय है। एक्पर्ट ओपिनियन कन्क्ल्यूजिव एवीडेंस नहीं है। इसे अन्य साक्ष्यों के साथ ही देखा जाएगा और उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचना एवं सम्पूर्ण साक्ष्यों पर विचार करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के खाते से विवादित धनराशि कपटपूर्ण तरीके से कूटरचना कर निकाली गयी है।
अपीलार्थी बैंक द्वारा ग्राहकों को जो लूज चेक जारी किये गये हैं उनका नम्बर लूज चेक पंजिका में अंकित नहीं किया गया है जिससे यह स्पष्ट नहीं है
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कि किस खाता धारक को किस नम्बर का चेक चारी किया गया है। अत: बैंक द्वारा किसी खाता धारक को जारी लूज चेक का प्रयोग दूसरे खाता से पैसा निकालने के लिए हो सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि लूज चेक इसू पंजिका बैंक ने ठीक ढंग से व्यवस्थित नहीं किया है जो बैंक की सेवा में कमी है।
बैंक अपने कर्मचारियों की सेवा में कमी एवं उनके अवैधानिक कार्य के लिए वायकेरियस लाइबेलिटी के सिद्धान्त के आधार पर उत्तरदायी है।
यह तथ्य अविवादित है कि प्रत्यर्थी/परिवादी की प्रश्नगत धनराशि के विड्राल के सम्बन्ध में पुलिस में दर्ज एफ०आई०आर० माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने रिट याचिका संख्या– 24005/2007 में पारित आदेश से स्थगित कर दिया है। माननीय उच्च न्यायालय का आदेश एफ०आई०आर० एवं अपराध की विवेचना के सम्बन्ध में है। माननीय उच्च न्यायालय का यह आदेश उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत वर्तमान परिवाद में बाधक नहीं है।
गीता जेठानी आदि बनाम एयरपोर्ट अथारिटी आफ इण्डिया आदि ।।। (2004) C.P.J. 106 (N.C.) के निर्णय में माननीय राष्ट्रीय आयोग की चार सदस्सीय पीठ ने माना है कि Pendency of criminal case is no ground to dismiss Complaint under consumer protection Act. अत: आपराधिक एफ०आई०आर० दर्ज होने के आधार पर परिवाद निरस्त नहीं किया जा सकता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिवाद बैंक की सेवा में कमी एवं अनुचित व्यापार पद्धति के सम्बन्ध में है जो उपभोक्ता फोरम द्वारा ही निर्णीत किया जा सकता है।
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उपरोक्त विवेचना एवं सम्पूर्ण तथ्यों एवं साक्ष्यों पर विचार करने के पश्चात अपीलार्थी बैंक के कर्मचारियों की सेवा में कमी मानने हेतु उचित आधार है। अत: जिला फोरम ने जो प्रत्यर्थी/परिवादी के खाता से निकाली गयी धनराशि 5,15,700/-रू० प्रत्यर्थी/परिवादी को ब्याज सहित देने हेतु विपक्षीगण को आदेशित किया है वह आधारयुक्त एवं साक्ष्य व विधि के अनुकूल है। परन्तु जिला फोरम ने जो ब्याज 18 प्रतिशत वार्षिक की दर से दिलाया है वह ब्याज दर अधिक है। ब्याज दर घटाकर 9 प्रतिशत वार्षिक किया जाना उचित है।
उपरोक्त निष्कर्ष के आधार पर अपील आंशिक रूप से ब्याज दर के सम्बन्ध में स्वीकार की जाती है और जिला फोरम का निर्णय व आदेश संशोधित करते हुए जिला फोरम द्वारा आदेशित ब्याज की दर 18 प्रतिशत वार्षिक से घटाकर 9 प्रतिशत वार्षिक की जाती है। जिला फोरम के निर्णय का शेष अंश यथावत कायम रहेगा।
अपील में उभय-पक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
अपील में धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत जमा धनराशि अर्जित ब्याज सहित जिला फोरम को इस निर्णय के अनुसार निस्तारण हेतु प्रेषित की जाए।..
(न्यायमूर्ति अख्तर हुसैन खान)
अध्यक्ष
कृष्णा, आशु0
कोर्ट नं01