राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील सं0-७९३ बी/१९९८
(जिला मंच, गाजियाबाद द्वारा परिवाद सं0-५६०/१९९४ में पारित आदेश दिनांक ३०-०९-१९९७ के विरूद्ध)
१. जनरल मैनेजर टेलीकॉम, जिला गाजियाबाद।
२. चीफ जनरल मैनेजर, यू.पी. सर्किल, लखनऊ।
३. महा नगर टेलीफोन्स निगम, १२४, कनाट सर्कस, नई दिल्ली।
४. यूनियन आफ इण्डिया द्वारा मिनिस्ट्री आफ कम्युनिकेशन्स, नई दिल्ली।
........... अपीलार्थीगण/विपक्षीगण।
बनाम
प्रेम प्रकाश मित्तल, ३, नव युग मार्केट, तृतीय तल, गाजियाबाद।
...........प्रत्यर्थी/परिवादी।
समक्ष:-
मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य।
अपीलार्थीगण की ओर से उपस्थित : श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी/परिवादी की ओर से उपस्थित: कोई नहीं।
दिनांक :- ०४-११-२०१५.
मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
प्रस्तुत अपील, जिला मंच, गाजियाबाद द्वारा परिवाद सं0-५६०/१९९४ में पारित आदेश दिनांक ३०-०९-१९९७ के विरूद्ध योजित की गयी है।
संक्षेप में तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने नया टेलीफोन कनेक्शन प्राप्त करने हेतु आवेदन फार्म १,०००/- रू० के बैंक ड्राफ्ट सहित दिनांक २७-०४-१९९३ को पंजीकृत डाक से अपीलार्थी सं0-१ को प्रेषित किया था, क्योंकि उक्त तिथि पर अपीलार्थी के काउण्टर पर उसका फार्म प्राप्त नहीं किया गया था। दिनांक २८-०४-१९९३ से नया टेलीफोन कनेक्शन प्राप्त करने हेतु पंजीयन शुल्क १,०००/- रू० के स्थान पर ३,०००/- रू० कर दिया गया था, अत: अपीलार्थी सं0-१ ने परिवादी के आवेदन फार्म तथा बैंक ड्राफ्ट को अपने पत्र दिनांकित ११-०५-१९९३ द्वारा यह कह कहते हुए वापस कर दिया कि क्योंकि यह फार्म दिनांक ३०-०४-१९९३ को प्राप्त हुआ है, अत: प्रत्यर्थी/परिवादी २,०००/-
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रू० का अतिरिक्त बैंक ड्राफ्ट प्रेषित करे। पुन: प्रत्यर्थी/परिवादी ने अपना आवेदन फार्म तथा बैंक ड्राफ्ट पंजीकृत पत्र दिनांकित १७-०५-१९९३ द्वारा अपीलार्थी सं0-१ को इस अनुरोध के साथ प्रेषित किया कि उसका आवेदन फार्म दिनांक २७-०४-१९९३ को जमा मानते हुए उसका आवेदन फार्म स्वीकार किया जाय। तत्पश्चात् अपीलार्थी सं0-१ ने पुन: अपने पत्र दिनांकित ०७-०६-१९९३ द्वारा दिनांक २८-०४-१९९३ से रजिस्ट्रेशन फीस में वृद्धि की सूचना दी तथा प्रत्यर्थी/परिवादी को कॉमर्शियल आफीसर से मिलने को कहा गया, किन्तु प्रत्यर्थी/परिवादी का आवेदन फार्म तथा बैंक ड्राफ्ट अपीलार्थी सं0-१ के कार्यालय में रोक लिया गया। इसके उपरान्त प्रत्यर्थी/परिवादी ने अनेक पत्र टेलीफोन सुविधा उपलब्ध कराने हेतु अपीलार्थीगण को भेजे, किन्तु अपीलार्थीगण द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी। अत: प्रत्यर्थी/परिवादी ने इन अभिकथनों के साथ प्रश्नगत परिवाद जिला मंच के समक्ष योजित किया कि अपीलार्थीगण द्वारा नये कनेक्शन के सम्बन्ध में जारी किए गये प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए प्रत्यर्थी/परिवादी ने दिनांक २७-०४-१९९३ को लागू रजिस्ट्रेशन फीस १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट इस प्रयोजन हेतु आवेदन पत्र भर कर अपीलार्थी सं0-१ को भेज दिया था, अत: प्रत्यर्थी/परिवादी ने दिनांक २७-०४-१९९३ को ही नये टेलीफोन कनेक्शन दिये जाने हेतु अपीलार्थीगण द्वारा निर्धारित शर्तों को स्वीकार करते हुए अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी तथा इस सम्बन्ध में आवश्यक कार्यवाही पूरी की। अत: अपीलार्थीगण एवं प्रत्यर्थी/परिवादी के मध्य संविदा अन्तिम रूप ले चुकी थी। ऐसी परिस्थिति में दिनांक २८-०४-१९९३ से बढ़े मूल्य के अनुसार पंजीयन शुल्क जमा करने के लिए प्रत्यर्थी/परिवादी उत्तरदायी नहीं था। प्रत्यर्थी/परिवादी ने जिला मंच के समक्ष परिवाद इस अनुतोष के साथ योजित किया कि अपीलार्थीगण को निर्देशित किया जाय कि वे नये टेलीफोन कनेक्शन हेतु पंजीयन दिनांक २७-०४-१९९३ को मानते हुए उसे नया टेलीफोन कनेक्शन दिया जाय तथा ९,०००/- रू० बतौर क्षतिपूर्ति दिलाये जायें।
विद्वान जिला मंच ने प्रश्नगत आदेश द्वारा उपरोक्त परिवाद को स्वीकार करते हुए अपीलार्थीगण को निर्देशित किया कि – ‘’ वे निर्णय के पश्चात् दो माह के अन्दर परिवादी को नये टेलीफोन कनेक्शन फार्म को २७-०४-९३ से ही रजिस्टर्ड करें और उसको नया कनेक्शन दें। साथ ही परिवादी को मानसिक उत्पीड़न और वाद के हर्जे खर्चे
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के लिए १,०००/- रूपये मुआवजा अदा करें। ‘’ इस निर्णय से क्षुब्ध होकर अपीलार्थीगण द्वारा प्रस्तुत अपील योजित की गयी। तदोपरान्त इस आयोग ने अपने निर्णय दिनांकित १६-११-२०१० द्वारा परिवाद को धारा-७ बी इण्डियन टेलीग्राफ एक्ट से बाधित मानते हुए जनरल मैनेजर टेलीफोन अथवा जिले में समकक्ष अधिकारी को परिवाद मध्यस्थ के माध्यम से निस्तारण हेतु सन्दर्भित किया।
इस आयोग के उपरोक्त आदेश दिनांकित १६-११-२०१० से क्षुब्ध होकर प्रत्यर्थी/परिवादी ने माननीय राष्ट्रीय आयोग के समक्ष पुनरीक्षण याचिका सं0-१५९९/२०१५ योजित की। माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा पुनरीक्षण याचिका आदेश दिनांकित ०४-०९-२०१५ द्वारा निर्णीत की गयी। माननीय राष्ट्रीय आयोग ने इस आयोग के आदेश दिनांकित १६-११-२०१० को अपास्त करते हुए अपील का निस्तारण विधि अनुसार करने हेतु आदेशित किया तथा पक्षकारों को दिनांक ०७-१०-२०१५ को इस आयोग के समक्ष उपस्थित होने हेतु निर्देश दिया। साथ ही अपीलार्थीगण को यह भी निर्देश दिया गया कि वे १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट उक्त तिथि पर इस आयोग के समक्ष प्रस्तुत करें अथवा विकल्प के रूप में बैंक ड्राफ्ट की अनुपलब्धता की स्िथति में शपथ पत्र प्रस्तुत करें।
अपीलार्थीगण की ओर से श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता उपस्थित आये। प्रत्यर्थी/परिवादी की ओर से कोई उपस्थित नहीं आया, यद्यपि उसके द्वारा अपना लिखित तर्क दिनांकित २३-१०-२०१५ दाखिल कर दिया गया है। मैंने अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव के तर्क विस्तार से सुने तथा अभिलेखों का अवलोकन किया।
श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव द्वारा यह सूचित किया गया कि माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित आदेश में यह स्पष्ट नहीं है कि १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट किसके नाम बनना है, अत: अपीलार्थीगण द्वारा बैंक ड्राफ्ट दाखिल नहीं किया जा सका। अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क भ्रामक है, क्योंकि माननीय राष्ट्रीय आयोग ने अपने आदेश दिनांकित ०४-०९-१९१५ में प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा अपीलार्थीगण को भेजे गये बैंक ड्राफ्ट के सन्दर्भ में आदेश पारित किया है तथा यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया है कि यदि बैंक ड्राफ्ट उपलब्ध नहीं हो तो अपीलार्थीगण इस संबंध
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में शपथ पत्र प्रस्तुत कर सकते हैं, किन्तु अपीलार्थीगण द्वारा न तो उक्त १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट दाखिल किया गया और न ही इस सम्बन्ध में शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया कि यह बैंक ड्राफ्ट उपलब्ध नहीं है।
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिये गये निर्देश कि दिनांक ०७-१०-२०१५ को पक्षकार राज्य आयोग के समक्ष उपस्थित हों, के अनुपालन में अपीलार्थीगण की ओर से उक्त दिनांक को कोई उपस्थित नहीं हुआ, जबकि प्रत्यर्थी उपस्थित हुआ। इसके बाद इस अपील की सुनवाई हेतु अन्य तिथियों दिनांक २३-१०-२०१५, २६-१०-२०१५ एवं ३०-१०-२०१५ को भी अपीलार्थीगण की ओर से कोई उपस्थित नहीं हुआ। दिनांक ३०-१०-२०१५ को अपीलार्थीगण की ओर से मात्र वकालतनामा दाखिल किया गया।
यह अपील जिला मंच द्वारा पारित निर्णय दिनांकित ३०-०९-१९९७ के विरूद्ध दिनांक ३०-०३-१९९८ को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम १९८६ की धारा-१५ के अन्तर्गत निर्धारित समय सीमा के बाद विलम्ब से योजित की गयी है। अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा किए जाने हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया गया है। अपील के प्रस्तुतीकरण में जानबूझकर देरी नहीं की गयी है। अत: विलम्ब क्षमा किए जाने की प्रार्थना की गयी। अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा किए जाने हेतु प्रस्तुत किए गये प्रार्थना पत्र में उल्लिखित तथ्यों के अनुसार जिला मंच द्वारा पारित निर्णय दिनांकित ३०-०९-१९९७ की प्रमाणित प्रतिलिपि अपीलार्थीगण द्वारा दिनांक ०७-१०-१९९७ को प्राप्त की गयी। तदोपरान्त उचित माध्यम से आदेश सक्षम अधिकारी के समक्ष दिनांक १४-१०-१९९७ को अग्रिम निर्देश एवं आवश्यक कार्यवाही हेतु प्रेषित किया गया। सक्षम अधिकारी ने निर्णय के अवलोकन के उपरान्त विधिक राय प्राप्त करने हेतु निर्णय लिया। अत: अभिलेख विधिक राय प्राप्त करने हेतु दिनांक २९-१०-१९९७ को अतिरिक्त जिला शासकीय अधिवक्ता (सिविल), गाजियाबाद को भेजे गये। अपील दायर करने हेतु विधिक राय दिनांक २८-११-१९९७ को प्राप्त हुई। विधिक राय प्राप्त होने के उपरान्त अपीलार्थीगण ने अपील योजित करने का निर्णय लिया तथा लखनऊ के अधिवक्ता से
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दिनांक ०५-१२-१९९७ को सम्पर्क किया, जिन्होंने किसी पैरोकार को अभिलेखों सहित भेजने हेतु निर्देश दिया, किन्तु विभाग में अधिक कार्य होने के कारण लखनऊ पैरोकार नहीं भेजा जा सका। दिनांक २३-०२-१९९८ को लखनऊ के अधिवक्ता से सम्पर्क हो सका। उसके उपरान्त अपील तैयार की गयी। तत्पश्चात् दिनांक २४-०३-१९९८ को पैरोकार लखनऊ भेजा गया। तब यह अपील दिनांक ३०-०३-१९९८ को विलम्ब से योजित की गयी।
प्रत्यर्थी ने अपने लिखित तर्क में यह कहा है कि अपीलार्थीगण ने अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को स्पष्ट करने हेतु वास्तविक तथ्यों को छिपाते हुए गलत तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्रत्यर्थी के कथनानुसार जिला मंच द्वारा पारित प्रश्नगत आदेश दिनांकित ३०-०९-१९९७ को प्राप्त करने के उपरान्त अपीलार्थी सं0-१ ने इस आदेश का अनुपालन करने की कार्यवाही प्रारम्भ की तथा इस सन्दर्भ में प्रत्यर्थी को पत्र दिनांकित ०४-११-१९९७, २४-०२-१९९८ एवं २७-०२-१९९८ प्रेषित किए। इन पत्रों की फोटोकापी लिखित तर्क के साथ संलग्नक-१, २ एवं ३ के रूप में प्रत्यर्थी ने दाखिल की है। अपीलार्थीगण ने जिला मंच में भी परिवाद की नोटिस प्राप्त करने के उपरान्त दो वर्ष बाद अपना प्रतिवाद पत्र प्रस्तुत किया था। जिला मंच द्वारा पारित निर्णय के उपरान्त अपीलार्थीगण ने प्रत्यर्थी द्वारा १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट दाखिल करने के बाबजूद जिला मंच के आदेश का अनुपालन करने हेतु प्रत्यर्थी से पुन: १,०००/- रू० के बैंक ड्राफ्ट की मांग की, जिस पर प्रत्यर्थी ने आपत्ति की। अत: अपील योजित की गयी तथा गलत तथ्यों के आधार पर अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा किए जाने की प्रार्थना की गयी है।
प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा अपने लिखित तर्क के साथ संलग्नक के रूप में अपीलार्थी सं0-१ द्वारा प्रत्यर्थी को भेजे गये पत्र दिनांकित ०४-११-१९९७ की फोटोप्रति, कॉमर्शियल आफीसर द्वारा प्रत्यर्थी को भेजे गये पत्र दिनांकित २४-०२-१९९८ की प्रति तथा अपीलार्थी सं0-१ द्वारा लेखा अधिकारी द्वारा पारित कार्यालय आदेश दिनांकित २७-०२-१९९८ की फोटोकाफी दाखिल की गयी हैं। इन अभिलेखों की विश्वसनीयता को अपीलार्थीगण ने अस्वीकार नहीं है, अत: इन अभिलेखों के अवलोकन से इस सन्दर्भ में प्रत्यर्थी/परिवादी के कथन की पुष्टि होती है।
अपीलार्थीगण द्वारा अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा करने
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हेतु जो कारण दर्शित किये गये हैं, वे सन्तोषजनक नहीं माने जा सकते। ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलार्थीगण द्वारा तत्परता एवं गम्भीरता से अपील समयावधि के अन्दर योजित करने का प्रयास नहीं किया गया। यह भी उल्लेखनीय है कि अपीलार्थीगण की ओर से विलम्बा को क्षमा किए जाने हेतु प्रस्तुत किये गये प्रार्थना पत्र के अन्तर्गत किए गये कथनों के समर्थन में विभाग के किसी अधिकारी/कर्मचारी का शपथ पत्र भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों एवं अभिलेखों से यह भी विदित होता है कि अपीलार्थीगण ने कुछ तथ्यों को छिपाते हुए अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा किए जाने की प्रार्थना की है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था।
इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त
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करना चाहिए।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही
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विफल हो जाएगा।
मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा फाइनेंसियल सर्विसेज लि0 बनाम नरेश सिंह, I(2013) CPJ (NC), जहॉं ७१ दिन का विलम्ब था, में यह विधिक सिद्धान्त दिया गया कि - “ condonation cannot be a matter to routine and the petitioner is required to explain delay for each and every date after expiry of the period of limitation. ” इसके अतिरिक्त यू.पी. आवास एवं विकास परिषद बनाम बृज किशोर पाण्डेय, IV (2009) CPJ 217(NC), जहॉं १११ दिन के विलम्ब का दिन-ब-दिन स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था, में भी मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा इसी प्रकार का विधिक सिद्धान्त दिया गया। मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिल्ली डेवलपमेण्ट अथॉरिटी बनाम वी.पी. नारायणन IV (2011) CPJ 155 (NC), जहॉं ८४ दिन का विलम्ब था, में यह विधिक सिद्धान्त दिया गया है कि- "this is enough to demonstrate that there was no reason for this delay, much less a sufficient cause to warrant its condonation". माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्शुल अग्रवाल बनाम नोएडा, IV(2011) CPJ 63 (SC), में निम्नवत् विधिक सिद्धान्त दिया गया है :-
"it is also apposite to observe that while deciding an application filed in such cases for condonation of delay, the court has to keep in mind that the special period of limitation has been prescribed under the Consumer Protection Act, 1986 for filing appeals and revisions in consumer matters and the object of expeditious adjudication of the consumer disputes will get defeated if this court was to entertain highly belated petition filed against the orders of the Consumer Fora."
ऐसी परिस्थिति में अपील के प्रस्तुतीकरण में हुआ विलम्ब क्षमा किए जाने योग्य नहीं है। प्रस्तुत अपील विलम्ब से प्रस्तुत होने के कारण कालबाधित है और कालबाधन के आधार पर ही निरस्त होने योग्य है।
प्रत्यर्थी/परिवादी ने अपने लिखित तर्क में यह तथ्य भी उल्लिखित किया है कि जिला मंच ने मूल आदेश में निर्णय का अनुपालन एक माह के अन्दर करने हेतु
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निर्देशित किया तथा क्षतिपूर्ति के रूप में २,०००/- रू० प्रत्यर्थी/परिवादी को अदा करने हेतु निर्देशित किया था, किन्तु बाद में कटिंग के माध्यम से आदेश को संशोधित करते हुए निर्णय के अनुपालन हेतु ०२ माह तथा क्षतिपूर्ति के रूप में १,०००/- रू० का तथ्य उल्लिखित किया गया। इस सन्दर्भ में जांच कराये जाने की मांग की गयी, किन्तु प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा ऐसी कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है, जिससे यह विदित हो कि मूल आदेश में अनुपालन हेतु एक माह का समय स्वीकृत किया गया तथा क्षतिपूर्ति के रूप में २,०००/- रू० की अदायगी हेतु आदेशित किया गया था। प्रश्नगत आदेश की प्रमाणित प्रतिलिपि में निर्णय के अनुपालन हेतु शब्द एक को काटकर दो अंकित किया गया है, किन्तु इसके अतिरिक्त भी कुछ कटिंग प्रमाणित प्रतिलिपि में की गयी हैं और उन कटिंगों पर हस्ताक्षर किए गये हैं। प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा इस स्तर पर भी कोई ऐसी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी, जिससे यह माना जा सके कि मूल आदेश में यह कटिंग नहीं थी। जिला मंच प्रश्नगत आदेश पारित करने से पूर्व मूल आदेश में संशोधन करने के लिए सक्षम है। ऐसी परिस्थिति में प्रथम दृष्ट्या जांच कराये जाने का कोई उचित आधार प्रतीत नहीं हो रहा है।
प्रत्यर्थी/परिवादी अपने लिखित तर्क में इस सम्बन्ध में भी जांच कराए जाने की प्रार्थना की है कि प्रस्तुत अपील का नम्बर ७९३ बी/१९९८ है, जबकि इस राज्य आयोग द्वारा पारित आदेश दिनांकित १६-११-२०१० में अपील का नम्बर ७९३/१९९८ अंकित है। इस सन्दर्भ में राज्य आयोग के प्रशासनिक अधिकारी (अभिलेखागार) की आख्या प्राप्त की गयी, जिन्होंने अपील आख्या दिनांकित ०३-११-२०१५, जो मूल रूप से पत्रावली पर उपलब्ध है, में निम्नवत् सूचित किया है :-
‘’ आप द्वारा की गई जिज्ञासा के सम्बन्ध में अवगत कराना है कि अपील सं0 ७९३/९८ नीलम देवी बनाम स्टेट बैंक आफ इण्डिया के नाम से दर्ज है एवं अपील सं0 ७९३ बी/१९९८ पर दूर संचार गाजियाबाद बनाम प्रेम प्रकाश मित्तल के नाम दर्ज है।
दर्ज रजिस्टर के अनुसार एक ही नम्बर पर दो अपीलें दर्ज हो गयी थीं, जिसमें जो अपील बाद में दर्ज हुई थी उसे ७९३ बी/९८ नम्बर दिया गया है। ‘’
ऐसी स्थिति में सम्भवत: टंकण त्रुटि के कारण आदेश दिनांक १६-११-२०१०
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में अपील सं0-७९३ बी/१९९८ के स्थान पर Appeal NO. 793 OF 1998 अंकित हो गया है।
जहॉं तक प्रश्नगत आदेश के अनुपालन का प्रश्न है, यदि प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा पूर्व में प्रेषित १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट उपलब्ध नहीं है अथवा उसकी धनराशि का विभाग द्वारा आहरण नहीं किया गया है, तब अपीलार्थीगण प्रत्यर्थी/परिवादी से दिनांक २७-०४-१९९३ को पंजीयन शुल्क के परिप्रेक्ष्य में १,०००/- रू० का नया बैंक ड्राफ्ट प्राप्त कर सकते हैं।
आदेश
प्रस्तुत अपील कालबाधन के आधार पर निरस्त की जाती है। अपीलार्थीगण को यह निर्देश भी दिया जाता है कि यदि प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा पूर्व में प्रेषित १,०००/- रू० का बैंक ड्राफ्ट उपलब्ध नहीं है अथवा उसकी धनराशि का विभाग द्वारा आहरण नहीं किया गया है, तब अपीलार्थीगण प्रत्यर्थी/परिवादी से दिनांक २७-०४-१९९३ को पंजीयन शुल्क के परिप्रेक्ष्य में १,०००/- रू० का नया बैंक ड्राफ्ट प्राप्त कर सकते हैं।
इस अपील का व्यय-भार पक्षकार अपना-अपना वहन करेंगे।
पक्षकारों को इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करायी जाय।
(उदय शंकर अवस्थी)
पीठासीन सदस्य
प्रमोद कुमार,
वैयक्तिक सहायक ग्रेड-१,
कोर्ट नं0-२.