(मौखिक)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-2354/2001
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, कानपुर नगर द्वारा परिवाद संख्या-246/2000 में पारित आदेश दिनांक 29.08.2001 के विरूद्ध)
बैंक आफ बड़ौदा, ब्रांच आफिस गुमटी नं0-5, कानपुर द्वारा ब्रांच मैनेजर।
अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
मैसर्स आर0के0 ब्रदर्स, 123/67, सरेशबाग, फजलगंज, कानपुर द्वारा प्रोपराइटर श्री रमेश टण्डन (मृतक) पुत्र स्व0 श्री जे0पी0 टण्डन, निवासी 22/22, पटकापुर, कानपुर।
1/1. श्रीमती रेखा टण्डन पत्नी स्व0 श्री रमेश टण्डन।
1/2. उमंग टण्डन पुत्र स्व0 श्री रमेश टण्डन।
1/3. रंगोली पुत्री स्व0 श्री रमेश टण्डन।
प्रतिस्थापित उत्तराधिकारीगण
निवासीगण-22/22, पटकापुर, कानपुर।
प्रत्यर्थीगण/परिवादी/प्रतिस्थापित उत्तराधिकारीगण
समक्ष:-
1. माननीय श्री गोवर्द्धन यादव, सदस्य।
2. माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री हरि प्रसाद श्रीवास्तव,
विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थीगण की ओर से उपस्थित : श्री आलोक सिन्हा, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक: 29.12.2020
माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
1. परिवाद संख्या-246/2000, मैसर्स आर0के0 ब्रदर्स बनाम बैंक आफ बड़ौदा में पारित निर्णय एंव आदेश दिनांक 29.08.2001 के विरूद्ध यह अपील प्रस्तुत की गई है। इस निर्णय एवं आदेश द्वारा विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग ने यह निष्कर्ष दिया है कि परिवादी से वसूली के आधार पर जमा कराई गई अंकन 76,500/- रूपये की धनराशि परिवादी को वापस लौटाई जाए।
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2. परिवाद पत्र के अनुसार परिवादी पर बैंक ऋण का अंकन 6,55,945/- रूपये बकाया था, जिसकी वसूली के लिए वसूली प्रमाण पत्र जारी किया गया, जिसमें अंकन 59,613/- रूपये वसूली चार्ज भी शामिल था। परिवादी ने माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के समक्ष एक रिट याचिका प्रस्तुत की थी, जिसमें पारित आदेश के अनुसार 06 माह के अन्तर्गत भुगतान करने पर वसूली प्रमाण पत्र दाखिल दफ्तर कर दिया जाएगा और वसूली शुल्क वसूल नहीं किया जाएगा।
3. परिवादी ने दिनांक 15.10.1998 को विपक्षी के यहां कुल 05 लाख रूपये कुल देयों के बदले में जमा करने का प्रस्ताव दिया बैंक ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। दिनांक 21.11.1998 को उक्त राशि को समायोजित करते हुए अकाउण्ट बंद कर दिया गया।
4. परिवादी ने तहसीलदार को एक पत्र प्रेषित किया, जिसके आधार पर वसूली प्रमाण पत्र वापस मांगा और अंकन 26,500/- रूपये भी तहसीलदार को प्रदत्त करने के लिए एक चेक जारी किया। यह राशि परिवादी के खाते से निकाली गई थी। बैंक को यह अधिकार नहीं है कि अंकन 26,500/- रूपये परिवादी के खाते से निकाले।
5. परिवाद पत्र में उल्लेख किया गया है कि परिवादी ने अंकन 76,500/- रूपये अतिरिक्त जमा किए हैं, जिसको वापस प्राप्त करने के लिए वह अधिकृत है, परन्तु बैंक द्वारा इंकार कर दिया गया, इसलिए परिवाद पत्र प्रस्तुत किया गया।
6. विपक्षी/अपीलार्थी की ओर से विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग के समक्ष परिवाद का प्रतिवाद किया गया। तदनुसार विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग द्वारा उपरोक्त वर्णित आदेश पारित किया गया।
7. इस आदेश को इन आधारों पर चुनौती दी गई है कि विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग द्वारा पारित आदेश विधि विरूद्ध है एवं विद्वान जिला
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उपभोक्ता फोरम/आयोग को प्रश्नगत परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है। पक्षकारों के मध्य उपभोक्ता एवं सेवा दाता का संबंध नहीं है। अपीलार्थी बैंक द्वारा अंकन 5,96,314/- रूपये का वसूली प्रमाण पत्र जारी किया गया था, जिस पर वसूली शुल्क अंकन 59,631/- रूपये बनता था और इस प्रकार कुल राशि अंकन 6,55,945/- रूपये दिनांक 06.03.1998 तक बकाया थी। इसके पश्चात् अपील के ज्ञापन में उल्लेख किया गया है कि तहसीलदार को अंकन 2,60,000/- रूपये अदा किए गए हैं और ऐसा उल्लेख स्वंय परिवाद पत्र में किया गया है। यह भी उल्लेख किया गया है कि परिवादी ने कुल 5 लाख रूपये जमा किए हैं और वसूली शुल्क अंकन 26,500/- रूपये भी जमा किए हैं। तदनुसार अंकन 76,500/- रूपये की वापसी के लिए पारित किया गया आदेश विधि विरूद्ध है।
8. दोनों पक्षकारों के विद्वान अधिवक्ताओं को सुना गया एवं प्रश्नगत आदेश तथा पत्रावली का अवलोकन किया गया।
9. अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क है कि तहसीलदार को जो राशि अदा की गई है, उस राशि पर वसूली शुल्क काननून देय है, यद्यपि उन्हें यह स्थिति स्वीकार है कि बैंक में जो राशि जमा की गई है, उस पर वसूली शुल्क विधि के अन्तर्गत देय नहीं है। प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क है कि माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश के अनक्रम में बैंक में जो राशि जमा कराई गई है, उस पर वसूली शुल्क देय नहीं है। परिवाद पत्र के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि पैरा संख्या-12 में परिवादी ने स्वीकार किया है कि अंकन 2,85,000/- रूपये की अदायगी तहसीलदार को की गई है यद्यपि शेष राशि बैंक में जमा करने का उल्लेख किया गया है, जब स्वंय परिवादी ने स्वीकार किया है कि तहसीलदार को अंकन 2,85,000/- रूपये अदा किए गए हैं तब इस मौखिक बहस का कोई तात्पर्य नहीं है कि सम्पूर्ण राशि बैंक में जमा कराई गई है। इस विधिक स्थिति पर कोई मतभेद नहीं है कि तहसीलदार को जो राशि अदा की गई है, उस राशि पर वसूली शुल्क विधि के अन्तर्गत देय होता है। अत: जो
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राशि तहसीलदार को अदा की गई है, उस राशि में से वसूली शुल्क की कटौती किया जाना विधिसम्मत है। फिर यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि परिवादी द्वारा जो भी राशि जमा की गई है, वह माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश के अनुपालन में जमा की गई है और यदि विपक्षी/अपीलार्थी बैंक द्वारा माननीय उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन किया गया है तब परिवादी के लिए समुचित अनुतोष विपक्षी/अपीलार्थी के विरूद्ध माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के समक्ष अवमानना याचिका प्रस्तुत करना है न कि विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग के समक्ष उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिवाद प्रस्तुत करना। अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत किए गए अपील के ज्ञापन में विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग के क्षेत्राधिकार के बिन्दु पर कठोर आपत्ितयां की गईं तथा बहस में यह भी तर्क किया गया कि सेवा में कमी का कोई प्रकरण प्रस्तुत केस में जाहिर नहीं किया गया है। बैंक द्वारा किसी भी प्रकार की सेवा में कमी नहीं की गई है। यह प्रकरण बैंक राशि की वसूली से संबंधित है। इस वसूली पर वसूली शुल्क लगना चाहिए या नहीं लगना चाहिए यह तय करने का क्षेत्राधिकार विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग को प्राप्त नहीं है। अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क पूर्णतया विधिसम्मत है। प्रस्तुत प्रकरण उपभोक्ता के प्रति बैंक द्वारा सेवा में की गई कमी नहीं है अपितु बैंक द्वारा अदा किए गए ऋण की वसूली से संबंधित विवाद है, जिसके संबंध में माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के समक्ष पूर्व में ही एक याचिका प्रस्तुत की जा चुकी थी और उस याचिका में आदेश भी पारित किया जा चुका है, जिसका अनुपालन दोनों पक्षकारों को करना था। यदि किसी पक्षकार द्वारा इस आदेश का अनुपालन नहीं किया गया तब उस पक्षकार के विरूद्ध विधिसम्मत कार्यवाही करने के लिए सक्षम न्यायालय के समक्ष ही उपस्थित होना चाहिए न कि विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग के समक्ष, क्योंकि विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग केवल सेवा में कमी के बिन्दु पर ही विचार कर सकता है वास्तविक
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देनदारी का बिन्दु विशेषत: माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश की व्याख्या करने का कोई अधिकार विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग को प्राप्त नहीं है। पुन: उल्लेख किया जाता है कि माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश का अनुपालन बैंक द्वारा नहीं किया गया है तब परिवादी के लिए यह आवश्यक है कि वह इस आदेश के उल्लंघन के कारण बैंक के विरूद्ध आवश्यक विधिसम्मत कार्यवाही करे। अत: विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग द्वारा क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर प्रश्नगत निर्णय पारित किया गया है, जो अपास्त होने योग्य है। अपील तदनुसार स्वीकार की जाने योग्य है।
आदेश
10. प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है। प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 29.08.2001 अपास्त किया जाता है। चूंकि विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम/आयोग को प्रश्नगत बिन्दु पर सुनवाई करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, अत: परिवाद निरस्त किया जाता है।
11. अपील में उभय पक्ष अपना-अपना व्यय स्वंय वहन करेंगे
12. उभय पक्ष को इस निर्णय एवं आदेश की सत्यप्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करा दी जाए।
(सुशील कुमार) (गोवर्द्धन यादव)
सदस्य सदस्य
लक्ष्मन, आशु0,
कोर्ट-2