राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-798/2016
(सुरक्षित)
(जिला उपभोक्ता फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद संख्या 136/2008 में पारित आदेश दिनांक 27.11.2015 के विरूद्ध)
Dena Bank, A Body Corporate Constituted Under The Banking Companies (Acquisition & Transfer of Undertaking) Act 1970, and having its Head Office at Dena Corporate Centre, C-10, G-Block, Bandra Kurla Complex, Bandra (E), Mumbai-400051 and branch office at Luxman Das Plaza Bank Road, near Vijay Crossing Gorakhpur through its Constituted Attorney Mohd. Naseem. .................अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
Amarjeet Singh Son of late Wariyam Singh Madan Proprietor M/s Gambhir Dry Cleaners, Golghar Park Road Gorakhpur. .................प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
माननीय न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री संजीव बहादुर श्रीवास्तव,
विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : श्री जसबीर सिंह वालिया,
विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक: 17.11.2017
मा0 न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित
निर्णय
परिवाद संख्या-136/2008 अमरजीत सिंह बनाम देना बैंक हेड आफिस व एक अन्य में जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, गोरखपुर द्वारा पारित निर्णय और आदेश दिनांक 27.11.2015 के विरूद्ध यह अपील धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत राज्य आयोग के समक्ष प्रस्तुत की गयी है।
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आक्षेपित निर्णय और आदेश के द्वारा जिला फोरम ने परिवाद स्वीकार करते हुए निम्न आदेश पारित किया है:-
''परिवादी का परिवाद विरूद्ध विपक्षीगण स्वीकार किया जाता है। परिवादी, विपक्षीगण से कुल 47000.00 रू0 (सैंतालीस हजार रू0) की क्षतिपूर्ति की धनराशि प्राप्त करने का अधिकारी है। परिवादी इस धनराशि पर दि0 04.04.1995 से अंतिम वसूली तक 06 प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज भी विपक्षीगण से प्राप्त करने का अधिकारी है। विपक्षीगण को निर्देशित किया जाता है कि वह निर्णय व आदेश के दिनांक से एक माह की अवधि के अंतर्गत समस्त आज्ञप्ति की धनराशि परिवादी को प्रदान करे अथवा बैंक ड्राफ्ट के माध्यम से मंच में जमा करे, जो परिवादी को दिलाई जा सके। नियत अवधि में आदेश का परिपालन न किए जाने की स्थिति में समस्त आज्ञप्ति की धनराशि विपक्षीगण से विधि के अनुसार वसूल की जाएगी।''
जिला फोरम के निर्णय से क्षुब्ध होकर परिवाद के विपक्षी देना बैंक ने यह अपील प्रस्तुत की है।
अपील की सुनवाई के समय अपीलार्थी की ओर से उनके विद्वान अधिवक्ता श्री संजीव बहादुर श्रीवास्तव और प्रत्यर्थी की ओर से उनके विद्वान अधिवक्ता श्री जसबीर सिंह वालिया उपस्थित आए हैं।
मैंने उभय पक्ष के तर्क को सुना है और आक्षेपित निर्णय व आदेश तथा पत्रावली का अवलोकन किया है।
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अपील के निर्णय हेतु संक्षिप्त सुसंगत तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद जिला फोरम के समक्ष इस कथन के साथ प्रस्तुत किया है कि वह अपने पिता वरियाम सिंह का एक मात्र वारिस है। उसके पिता वरियाम सिंह एक व्यक्ति अमरजीत सिंह पुत्र बलबीर सिंह नि0 सुरजकुण्ड आवास विकास कालोनी द्वारा दिनांक 18.12.1996 को विपक्षी संख्या-2 देना बैंक से लिए गए 45,000/-रू0 के ऋण के गारन्टर थे और अपनी समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 दिनांक 04.04.1995 को बंधक के रूप में प्रदान की थी, जिसकी कीमत 44,153/-रू0 थी।
परिवाद पत्र के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन है कि शर्तों के अनुसार अमरजीत सिंह का ऋण अदा हो जाने पर उपरोक्त एफ0डी0 वापस होनी थी या उसकी मेच्योरिटी धनराशि का भुगतान होना था, परन्तु उपरोक्त ऋणी अमरजीत सिंह ने ऋण के भुगतान में चूक की। अत: उसके विरूद्ध विपक्षी संख्या-2 देना बैंक ने अवशेष धनराशि के लिए वसूली प्रमाण पत्र भेजा और उसकी वसूली ऋणी से आर0सी0 के माध्यम से की गयी। उक्त ऋणी के विरूद्ध ऋण की कोई धनराशि अवशेष नहीं रही। अत: ऐसी स्थिति में प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह द्वारा बंधक रखी गयी एफ0डी0 प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता व उनकी मृत्यु के बाद प्रत्यर्थी/परिवादी को वापस किया जाना और उसकी मेच्योरिटी धनराशि का भुगतान किया जाना आवश्यक है, परन्तु विपक्षी संख्या-2 देना बैंक ने न तो एफ0डी0 प्रत्यर्थी/परिवादी को वापस की और न ही उसकी मेच्योरिटी धनराशि का भुगतान किया। अत:
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प्रत्यर्थी/परिवादी ने अपने पिता की मृत्यु के बाद दिनांक 23.10.2007 को नोटिस विपक्षी संख्या-2 बैंक को भेजा, परन्तु नोटिस के बाद भी न तो विपक्षी संख्या-2 ने एफ0डी0 वापस की और न उसकी मेच्योरिटी धनराशि का भुगतान किया। इसके विपरीत विपक्षी संख्या-2 के ब्रांच मैनेजर ने प्रत्यर्थी/परिवादी को आश्वासन दिया कि वह उसकी एफ0डी0 की तलाश कर रहे हैं और जब मिलेगी तो ब्याज सहित उसका भुगतान किया जाएगा। इस कारण प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद प्रस्तुत नहीं किया और विपक्षी संख्या-2 का इन्तजार करता रहा। अन्त में दिनांक 26.03.2008 को जब प्रत्यर्थी/परिवादी विपक्षी संख्या-2 के ब्रांच मैनेजर से मिला तो उन्होंने बताया कि एफ0डी0 ट्रेसेबल नहीं है। अत: भुगतान नहीं किया जा सकता है। अत: विवश होकर प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद जिला फोरम के समक्ष प्रस्तुत किया है।
जिला फोरम के समक्ष विपक्षीगण की ओर से लिखित कथन प्रस्तुत किया गया है और कहा गया है कि परिवादी को परिवाद प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है। एफ0डी0आर0 वरियाम सिंह के नाम बना हुआ था, जिसका उन्होंने स्वयं भुगतान प्राप्त कर लिया था। अत: वाद हेतु कोई कारण नहीं है।
लिखित कथन में विपक्षीगण की ओर से कहा गया है कि परिवादी का यह कथन गलत है कि अमरजीत सिंह पुत्र बलबीर सिंह द्वारा लिए गए 45,000/-रू0 ऋण के सम्बन्ध में उसके पिता ने दिनांक 18.12.1996 को समृद्धि डिपाजिट रिसिट जमा की थी और उसकी परिपक्वता राशि 44,153/-रू0 थी। लिखित कथन में
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कहा गया है कि उपरोक्त समृद्धि डिपाजिट रिसिट बतौर लिक्विडेटेड कोलेट्ल सिक्योरिटी जमा नहीं थी। परिवादी का यह कथन कि उक्त एफ0डी0आर0 की धनराशि वरियाम सिंह को प्रदान नहीं की गयी, सर्वथा गलत है। परिवादी ने वरियाम सिंह की मृत्यु के पश्चात् या पूर्व कभी भी विपक्षी बैंक से सम्पर्क नहीं किया। इस सम्बन्ध में किया गया कथन सर्वथा गलत है। वास्तविकता यह है कि परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने परिपक्वता तिथि दिनांक 04.04.1996 के पूर्व दिनांक 16.06.1995 को उपरोक्त एफ0डी0आर0 की धनराशि 40,460/-रू0 प्राप्त किया है और अपने बचत खाते से और धनराशि लेकर 45,000/-रू0 की धनराशि की एफ0डी0आर0 नं0 1034017 दो वर्ष की अवधि के लिए स्वयं अपने एवं प्रेम सिंह के नाम आइदर एण्ड सर्वाइवर के रूप में नया बनवाया, जिसकी परिपक्वता तिथि 16.06.1997 थी और परिपक्वता धनराशि 57006/-रू0 थी।
लिखित कथन में विपक्षीगण की ओर से कहा गया है कि उपरेाक्त एफ0डी0आर0 के नवीनीकरण हेतु निवेदन किया गया था, जिसमें 57006/-रू0 के एफ0डी0आर0 नम्बर-1677658 वरियाम सिंह एवं प्रेम सिंह के नाम से आइदर आर सर्वाइवर के रूप में नवीनीकृत किया गया, जिसकी परिपक्वता तिथि 16.09.1999 थी। लिखित कथन में कहा गया है कि दिनांक 16.09.1999 के पूर्व एफ0डी0आर0 का भुगतान करने के लिए वरियाम सिंह ने निवेदन किया तो इसका भुगतान दिनांक 03.04.1998 को मु0 60426/-रू0 वरियाम सिंह के खाता संख्या-4501 में कर दिया
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गया और उसने भुगतान प्राप्त कर लिया।
जिला फोरम ने उभय पक्ष के अभिकथन एवं उपलब्ध साक्ष्यों पर विचार करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है कि परिवादी ने अपने साक्ष्य से प्रमाणित कर दिया है कि वरियाम सिंह एवं परिवादी के एस0टी0डी0आर0 नम्बर-1034017 जिसे 24 माह की अवधि के लिए रिनूअल कर दिया गया था, की धनराशि परिवादी को प्राप्त नहीं हुई है और न ही धनराशि वरियाम सिंह को प्राप्त हुई है। अत: जिला फोरम ने यह निष्कर्ष निकाला है कि परिवादी एस0टी0डी0आर0 नम्बर-1034017 की धनराशि मु0 40000/-रू0 विपक्षीगण के बैंक से प्राप्त करने का अधिकारी है। जिला फोरम ने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि परिवादी विपक्षीगण से शारीरिक व मानसिक कष्ट हेतु 5000/-रू0 और वाद व्यय हेतु 2000/-रू0 पाने का अधिकारी है। अत: जिला फोरम ने परिवाद स्वीकार करते हुए उपरोक्त प्रकार से निर्णय और आदेश पारित किया है।
अपीलार्थी/विपक्षी बैंक के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017, जो दिनांक 04.04.1995 को प्राप्त की थी और जिसकी परिपक्वता तिथि दिनांक 04.04.1996 थी, का अपरिपक्व भुगतान दिनांक 16.06.1995 को प्राप्त किया है और 40,560/-रू0 की धनराशि प्राप्त की है।
अपीलार्थी/विपक्षी बैंक के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि श्री विमल कुमार गुप्ता, सीनियर मैनेजर, देना बैंक, गोरखपुर ने अपील में शपथ पत्र प्रस्तुत किया है और उनके इस शपथ पत्र का
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संलग्नक-1 और 2 वरियाम सिंह द्वारा अपने समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 से 40,560/-रू0 का भुगतान प्राप्त करने का बाउचर और वेरीफाइड पेमेंट है।
अपीलार्थी/विपक्षी बैंक के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने दिनांक 16.06.1995 को उपरोक्त समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 की धनराशि 40,560/-रू0 प्राप्त कर उसी दिन दो समृद्धि डिपाजिट रिसिट, जिसका नं0 1034254 और 1034255 था, क्रमश: 25,462/-रू0 और 25,000/-रू0 की प्राप्त किया है, जिनकी परिपक्वता तिथि दिनांक 16.06.1997 थी और जिसमें एक रिसिट की परिपक्वता धनराशि 32,255/-रू0 और दूसरी रिसिट की परिपक्वता धनराशि 31,670/-रू0 थी।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह अथवा प्रत्यर्थी/परिवादी को उपरोक्त समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 का कोई भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है और न उन्होंने ऐसा कोई भुगतान लिया है।
मैंने उभय पक्ष के तर्क पर विचार किया है।
निर्विवाद रूप से प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017, 40,000/-रू0 की दिनांक 04.04.1995 को विपक्षी संख्या-2 से प्राप्त किया है, जिसकी परिपक्वता तिथि दिनांक 04.04.1996 थी और परिपक्वता धनराशि 44,153/-रू0 थी। अपीलार्थी बैंक के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता ने इस समृद्धि डिपाजिट का अपरिपक्व
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भुगतान दिनांक 16.06.1995 को प्राप्त किया है और कुल 40,560/-रू0 की धनराशि प्राप्त की है। अत: यह साबित करने का भार अपीलार्थी बैंक पर है कि वास्तव में प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने यह धनराशि प्राप्त की है, परन्तु जिला फोरम के अनुसार अपीलार्थी बैंक यह प्रमाणित नहीं कर सका है कि यह भुगतान प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता ने प्राप्त किया है। इसके विरूद्ध जिला फोरम ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने यह साबित किया है कि एस0टी0डी0आर0 की धनराशि का भुगतान उसे या उसके पिता वरियाम सिंह को प्राप्त नहीं हुआ है।
अपीलार्थी बैंक ने अपील में श्री विमल कुमार गुप्ता, सीनियर मैनेजर, देना बैंक के शपथ पत्र दिनांक 03.10.2017 के साथ जो संलग्नक-1 और 2 प्रस्तुत किया है, उसमें संलग्नक-1 समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 के 40,560/-रू0 के भुगतान का बाउचर है। इस पर प्राप्तकर्ता का भुगतान प्राप्त करने का कोई हस्ताक्षर नहीं है। श्री विमल कुमार गुप्ता के उपरोक्त शपथ पत्र का संलग्नक-2 और 3 दिनांक 16.06.1995 को नरेन्द्र सिंह और वरियाम सिंह के नाम समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034254 और 1034255 है, परन्तु इन दोनों रिसिट से कदापि यह प्रमाणित नहीं होता है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता वरियाम सिंह ने अपनी पूर्व रिसिट नं0 1034017 की धनराशि का अपरिपक्व भुगतान दिनांक 16.06.1995 को प्राप्त किया है। समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 का भुगतान प्राप्त करने हेतु उसे बैंक में समर्पित किया जाना आवश्यक है। अत: समृद्धि डिपाजिट रिसिट
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नं0 1034017 की मूल प्रति, जो बैंक में भुगतान के समय समर्पित की गयी है, प्रस्तुत कर बैंक उसकी धनराशि का भुगतान प्रमाणित कर सकता था, परन्तु बैंक ने उक्त समृद्धि डिपाजिट रिसिट नं0 1034017 की समर्पित मूल प्रति प्रस्तुत कर उसका भुगतान प्राप्तकर्ता द्वारा प्राप्त किया जाना प्रमाणित नहीं किया है। चूँकि अपीलार्थी बैंक द्वारा इस रिसिट का भुगतान प्राप्तकर्ता को किया जाना अभिकथित है। अत: यह साबित करने का भार अपीलार्थी बैंक पर है, परन्तु वह यह साबित करने में वह असफल रहा है कि इस रिसिट को बैंक में समर्पित कर वरियाम सिंह ने उसका भुगतान प्राप्त किया है। अत: उभय पक्ष के अभिकथन एवं सम्पूर्ण तथ्यों, साक्ष्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करने के उपरान्त मैं इस मत का हूँ कि अपीलार्थी बैंक यह साबित करने में असफल रहा है कि उसने प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता के नाम की एस0टी0डी0आर0 संख्या-1034017 का भुगतान प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता को दिनांक 16.06.1995 को किया है। अत: जिला फोरम ने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि इस रिसिट का भुगतान प्रत्यर्थी/परिवादी के पिता या प्रत्यर्थी/परिवादी का किया जाना बैंक प्रमाणित नहीं कर सका है, वह साक्ष्यों की सही और विधिक विवेचना पर आधारित है और जिला फोरम के निष्कर्ष को त्रुटिपूर्ण अथवा अवैधानिक मानने हेतु उचित आधार नहीं है। अत: मैं इस मत का हूँ कि जिला फोरम के निर्णय में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
जिला फोरम ने एस0टी0डी0आर0 संख्या-1034017 की
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धनराशि 40,000/-रू0 का भुगतान ब्याज के साथ करने का आदेश अपीलार्थी बैंक को दिया है। अत: जिला फोरम ने जो 5000/-रू0 मानसिक व शारीरिक कष्ट हेतु प्रत्यर्थी/परिवादी को अपीलार्थी/विपक्षीगण से दिलाया है, उसे अपास्त किया जाना उचित है।
जिला फोरम ने जो 2000/-रू0 वाद व्यय प्रत्यर्थी/परिवादी को प्रदान किया है, वह उचित है।
उपरोक्त विवेचना एवं ऊपर निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर अपील आंशिक रूप से स्वीकार की जाती है और जिला फोरम ने प्रत्यर्थी/परिवादी को जो मानसिक एवं शारीरिक कष्ट हेतु 5000/-रू0 क्षतिपूर्ति प्रदान की है, उसे अपास्त किया जाता है और जिला फोरम का निर्णय संशोधित करते हुए अपीलार्थी बैंक को आदेशित किया जाता है कि वह 42000/-रू0 प्रत्यर्थी/परिवादी को जिला फोरम के आदेश के अनुसार ब्याज साहित अदा करे।
उभय पक्ष अपील में अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत अपील में जमा धनराशि अर्जित ब्याज सहित जिला फोरम को इस निर्णय के अनुसार निस्तारण हेतु प्रेषित की जाये।
(न्यायमूर्ति अख्तर हुसैन खान)
अध्यक्ष
जितेन्द्र आशु0
कोर्ट नं0-1